Question
Download Solution PDFयथोचितं मेलनं कुरुत-
सूची I |
सूची II |
||
(A) |
विवाहसूक्तम् |
I. |
ऋग्वेदे |
(B) |
नासदीयसूक्तम् |
II. |
शुक्लयजुर्वेदे |
(C) |
शिवसङ्कल्पसूक्तम् |
III. |
शतपथब्राह्मणे |
(D) |
वाङ्गनस आख्यानम् |
IV. |
अथर्ववेदे |
Answer (Detailed Solution Below)
Detailed Solution
Download Solution PDFप्रश्न का हिंदी भाषांतर : यथोचित मेलन कीजिए।
स्पष्टीकरण -
- विवाह सूक्त -
- ऋग्वेद संहिता के दशम मण्डल के 85वें सूक्त को विवाहसूक्त नाम से जाना जाता है। अथर्ववेद में भी विवाह के दो सूक्त हैं। इस सूक्त में सूर्य की पुत्री 'सूर्या तथा सोम के विवाह का वर्णन है। अश्विनी कुमार इस विवाह में सहयोगी का कार्य करते हैं। यहां स्त्री के कर्तव्यों का विस्तार से वर्णन है। उसे सास-ससुर की सेवा करने का उपदेश दिया गया है। परिवार का हित करना उसका कर्तव्य है। साथ ही स्त्री को गृहस्वामिनी, गृहपत्नी और 'साम्राज्ञी' कहा गया है। अतः स्त्री को परिवार में आदरणीय बताया गया है।
- नासदीय सूक्त -
- ऋग्वेदसंहिता के दशम मण्डल के 129वें सूक्त को 'नासदीय सूक्त या 'भाववृत्तम सूक्त' कहते हैं। इसमें सृषिट की उत्पत्ति की पूर्व अवस्था का चित्रण है और यह खोजने का यत्न किया गया है कि जब कुछ नहीं था तब क्या था। तब न सत था, न असत, न रात्रि थी, न दिन था; बस तमस से घिरा हुआ तमस था। फिर सर्वप्रथम उस एक तत्त्व में 'काम उत्पन्न हुआ और उसका यही संकल्प सृषिट के नाना रूपों में अभिव्यक्त हो गया। पर अन्त में सन्देह किया गया है कि वह परम व्योम में बैठने वाला एक अध्यक्ष भी इस सबको जानता है या नहीं। अथवा यदि जानता है तो वही जानता है और दूसरा कौन जानेगा?
- शिवसंकल्पसूक्त -
- छह मन्त्रों वाला शिवसंकल्पसूक्त शुक्ल यजुर्वेद का अंश (अध्याय ३४, मन्त्र १-६) है । यह छह मन्त्र अपनी संरचना और संदेश में इतने सारगर्भित व भावपूरित है कि इन्हें स्वतंत्र रूप से एक उपनिषद् की मान्यता भी दी गई है । इस प्रकार शिवसंकल्पसूक्त को शिवसंकल्पोपनिषद् के नाम से भी जाना जाता है । यहाँ शिव संकल्प से तात्पर्य शुभ संकल्प, श्रेष्ठ एवं कल्याणकारी संकल्प से है। इन मन्त्रों में मनुष्य को ईश्वर से प्राप्त `मन` नामक दिव्य ऊर्जा के अद्भुत सामर्थ्यों का वर्णन है।
- वाङ्मनस् आख्यान -
- वाङ्मनस् विषयक आख्यान शतपथ ब्राह्मण (१.४.५.८-१३) के प्रथम काण्ड के चतुर्थ प्रपाठक के अन्तर्गत पाँचवें ब्राह्मण में मन्त्र संख्या आठ से तेरह पर्यन्त प्राप्त होता है । यह आख्यान संवादशैली में है । इसका सारसंक्षेप निम्नवत् है - एक बार वाणी और मन के बीच विवाद हो गया । मन ने कहा - 'मैं तुमसे श्रेष्ठ हूँ क्यूॅंकि मैं जो जानता हूॅं तुम वही बोलती हो । जो मैं नहीं जानता उस विषय में तुम नहीं बोल सकती । इस तरह तुम मेरा अनुकरण करने के कारण मुझसे श्रेष्ठ कैसे हो सकती हो ? अतः मैं ही तुमसे श्रेष्ठ हूँ'। तब वाणी बोली - 'मैं तुमसे श्रेष्ठ हूॅं‚ क्योंकि जो तुम जानते हो उसे मैं ही विज्ञापित और प्रकाशित करती हूॅं'। इस प्रकार से झगड़ते हुए वे दोनों प्रजापति के पास पहुँचे और निर्णय करने को कहा । प्रजापति ने वाणी को संकेतित करते हुए कहा कि मन ही तुमसे श्रेष्ठ है। तुम मन का ही अनुसरण करने वाली हो। अनुकर्ता छोटा और क्षुद्र होता है । इस तरह से प्रजापति से प्रतिकूल निर्णय सुनकर वाणी ने उद्विग्न होकर गर्भ त्याग दिया और प्रजापति से बोली‚ मैं तुमसे हविद्रव्य प्राप्ति का अधिकार छीनती हूँ। अब से तुम अहव्यवाट् ही रहो अर्थात् हवि प्राप्ति के अनधिकारी ही रहो क्यूँकि मैं तुम्हारे द्वारा निन्दित और विनिपातित हूँ । तब से यज्ञ में प्रजापति के लिये जो कुछ भी करते हैं वह उपांशु ही किया जाता है। भगवती वाग् के द्वारा गलित और पतित वही गर्भ अत्रि हुए । इसीलिये तभी से आज तक गलितगर्भा रजस्वला स्त्री को आत्रेयी कहा जाता है।
अतः स्पष्ट है, की "A - IV, B - I, C - II, D - III " यह इस प्रश्न का सही उत्तर है।
Last updated on Jun 22, 2025
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